आजादी से पहले के कुछ जन आन्दोलन
एक नज़र में :
नील विद्रोह(1859-1860 ई.) :
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एक नज़र में :
- नील विद्रोह(1859-1860 ई.)
- सन्यासी आन्दोलन(1763-1800 ई.)
- वहाबी आन्दोलन(19वीं शताब्दी)
- कूका आन्दोलन(1840 ई.)
नील विद्रोह(1859-1860 ई.) :
- एक नील उत्पादक के 2 भूतपूर्व कर्मचारी दिगम्बर विश्वास और विष्णु विश्वास के नेतृत्व में वहाँ के किसान एकजुट हो नील की खेती बंद कर दी
- बंगाल के वे काश्कार जो अपने खेतों में चावल की खेती करना चाहते थे, उन्हें यूरोपियन नील बागान मालिक नील की खेती करने के लिए मजबूर करते थे
- उन्हें इनकार करने पर किसानों को उनके दमन-चक्र का सामना करना पड़ता था
- सितम्बर, 1859 से विद्रोह शुरू होकर 1860 ई. तक नदिया, पावना, खुलना, ढाका, मालदा, दीनाजपुर आदि क्षेत्रों में फ़ैल गया
- किसानों की एकजुटता के कारण बंगाल में 1860 तक सभी नील कारखानें बंद हो गए
- इस आन्दोलन को बढ़ावा दिया - हरिश्चंद्र मुखर्जी के पत्र 'हिन्दू पेट्रियट' ने जिसकी स्थापना गिरीश चन्द्र घोष ने की थी तथा दीनबंधु मित्र के 'नील दर्पण' ने जिसमे बागान मालिकों के अत्याचारों का खुला चित्रण मिलता है
- बंकिम चन्द्र चटर्जी की 'आनन्दमठ' की वास्तुकथा सन्यासी आन्दोलन पर ही आधारित है
- तीर्थ स्थानों पर आने-जाने के खिलाफ प्रतिबन्ध को लेकर सन्यासी लोग क्षुब्ध थे
- इन्होने जनता के साथ मिलकर कंपनी की कोठियों और उनके लोगो पर हमले कर दिए
- वारेन हेस्टिंग्स ने इस आन्दोलन का दमन किया था
- इसी दौरान 1770 ई. में भीषण अकाल पड़ा था
- यह 19वीं शताब्दी के 4वें दशक से लेकर 7वें दशक तक चली
- अंग्रेज सरकार को इससे सुनियोजित व गंभीर चुनौती मिली
- रायबरेली के सैय्यद अहमद इस आन्दोलन के प्रवर्तक थे
- वह अरब के अब्दुल वहाब से प्रभावित थे किन्तु अधिक प्रभाव दिल्ली के एक संत शाह वली उल्लाह का था
- अहमद का उद्देश्य पंजाब में सिख और बंगाल में अंग्रेजों को अपदस्थ कर भारत में मुस्लिम सत्ता को पुनरस्थापित करना था
- सैय्यद अहमद ने 1830ई. में पेशावर पर कब्जा कर लिया और अपने नाम के सिक्के ढलवाये परन्तु अगले ही वर्ष बालाकोट की लड़ाई में वे मारे गए
- इस अवधी में आन्दोलन का नेत्रत्व मौलवी कासिम, विलायत अली, इनायत अली, अहमदुल्लाह आदि ने की
- शाखाएं - पटना, हैदराबाद, मद्रास, बंगाल, उत्तर प्रदेश, बंबई
- 1857 ई. की क्रान्ति में भी इस आन्दोलन का काफी योगदान रहा
- यह आन्दोलन 'वहाबी आन्दोलन' से मिलता-जुलता आन्दोलन था
- दोनों धार्मिक आन्दोलन के रूप में शुरू होकर बाद में राजनीतिक आन्दोलन में बदल गए, जिसका सामान्य उद्देश्य अंग्रेजों को देश से बाहर निकालना था
- पश्चिमी पंजाब में कूका आन्दोलन की शुरुवात 1840 में भगत जवाहरमल द्वारा की गई, मुख्यतः इन्हें 'सियान साहब' के नाम से पुकारा जाता था
- सियान साहब का उद्देश्य सिक्ख धर्म में प्रचलित बुराईयों व अंधविश्वास से इस धर्म को शुद्ध करना था
- 1872 में इस आन्दोलन के नेता राम सिंह को रंगून निर्वासित कर दिया गया जहाँ 1885 में इनकी मृत्यु हो गई और आन्दोलन का अंत हुआ
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2 comments
Write commentsBahut badhiya
ReplyDhanyavaad :)
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